अगर आप ‘कोठागोइ’ को ‘मनोहर कहानियाँ’ का साहित्यिक संस्करण मानकर जिस्म्फ़रोशी के किस्से पढने चले हैं तो यह एक भूल है. प्रभात रंजन की यह पुस्तक मुज़्ज़फ़रपुर के उस स्थान की कहानी कहता है जहाँ सरस्वती और लक्ष्मी का एक साथ बोलबाला रहा परंतु हर सभ्रांत संस्कृति की तरह शनैः-शनैः धूमिल होते चले गए.

कुछ कथ्य, कुछ तथ्य, कुछ गल्प तो कुछ जनश्रुतियों से लबरेज यह पुस्तक उस इतिहास की सैर कराता है जिसे ‘सभ्य समाज’ ने जबरन रसिकमिजाजी के प्रांगण में पटक दिया. जैसा कि भुमिका में खुद कहा गया है कि इतिहास कुछ विषयों पर हमेशा मौन रहा है, लेखक ने उस कथावस्तु पर कलम चलायी है जो जिसे कुंठा वाली निगाहों से देखा जाता रहा है – कोठा.[su_pullquote align=”right”]’कोठागोई’ उस खंडहर की दास्तां है जिसकी ईमारत कभी बुलंद हुआ करती थी[/su_pullquote]
मेरा मत है कि एक अच्छा नाम पुस्तक का आधा प्रचार खुद कर देता है. प्रभात जी ने पहली बार इसके नाम की चर्चा की तो इसके हाथ आने और पढ़ने का मन स्वाभाविक था – ‘कोठागोई’. जो बात उमराव जान सिनेमा सुनकर जेहन में आता है वही इस पुस्तक का नाम सुनकर. और इसके विषय का अनुमान लगाते हुए इक्षा और भी बलवती हो गयी. कोठाहित्य (सोचा मैं भी एक शब्द गढ़ ही लूँ – कोठा और साहित्य!) पर उम्दा पुस्तकें तो लिखी गयी है परन्तु संख्या नगण्य है. संभवतः बदनाम गलियों में जाने से कलम भी कतराती हो. ये कोठेवालियां, वेश्या, एक सेक्सवर्कर की आत्मकथा इत्यादि को पढ़ डालने के बाद समान विषय पर आधारित पुस्तक की ताक में हमेशा रहता. वहीँ कोठागोई का सहसा दृश्य में आना एक पाठक के तौर पर आशातीत लगा. समीक्षा-प्रति जब मिली तो भूमिका पढ़कर ही आश्वस्त हो गया कि यात्रा संगीतमयी रहेगी. हर्ष इस बात से भी हुआ कि कई लोगों के पूर्वाग्रहों को तोड़ने में यह पुस्तक संभवतः सफल हो. अथवा ‘तवायफ’ काम से कम, नाम से ज्यादा बदनाम थीं. एक वाक्य में कहें तो कोठागोई उस खंडहर की दास्तां है जिसकी ईमारत कभी बुलंद हुआ करती थी.
पहली कहानी चतुर्भुज स्थान के नाम के नामांकरण और शहर की स्थापना को लेकर ही है. जिनके कारण चतुर्भुज नाम और स्थान अस्तित्व में आया, वह प्रसिद्धि के चरम पर जाने के बावजूद गुमनामी में चले गये. तो इसमें आश्चर्य ही क्या कि उस मिट्टी पर पनपने वाली पीढ़ी का भी अंततः वही हश्र हुआ. कुल बारह कहानियों में आपको शरतबाबू से लेकर ब्रजबाला देवी, पन्ना देवी, गौहर खां इत्यादि भी मिल जायेंगे. कहीं ज़मींदारों की दास्तान है तो कहीं राजा साहब की भी. कुछ सौ-सवा-सौ साल (या इससे ज्यादा) का इतिहास समेटे इन किस्सों का विस्तार मूँहा-मूहीं सीतामढ़ी, दरभंगा और अन्य तिरहुत क्षेत्र में भी हुआ परन्तु लेखक ने सभी को एक जगह बड़े जतन से समेटा है. लगभग सभी कहानियाँ बयाँ करने के अंदाज में वर्णित-लिखित है. काबिल-ए-गौर बात यह भी है कि प्रभात जी ने जिस विषय का चयन किया है, उसके किस्से-कहानियाँ को चमकाने के लिए तमाम तीखा-तड़का लगाया जा सकता था. परन्तु लेखक ने विश्वसनीयता को बरकरार रखा है. कहानी का स्रोत जो भी रहा हो, लेखन पूरी इमादारी से की गयी है. विषय भी अच्छा – शैली भी अच्छी !
‘कोठागोइ’ कुल मिलाकर चतुर्भुज स्थान के उन भूले बिसरे फ़नकारों और हस्तियों का एक क्रॉनिकल है जिसे संगीत और कला की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है. ‘कुछ और’ की तलाश वालों को यह पुस्तक निराश करेगी, परंतु वह पाठकवर्ग जो गणिका और बाईजी को एक सम्मानसूचक नाम समझते हैं उनके लिए यह पठनीय, रोचक और कई मामलों में ज्ञानवर्धक भी है. हर पुस्तक में कालजयी सामग्री खोजना या बेस्टसेलर के मानकों पर उसकी चर्चा करना जरूरी नहीं. यह पुस्तक पूरे ठसक से आपकी अलमारी पर बैठने काबिल है. आप जब चाहे पन्ने पलट बिना अपना दामन मैला किये बदनाम गली की सैर पर निकल सकते हैं. क्या पता आपको भी कुछ भूले-बिसरे सुर सुनाई पड़ जाए.
पुस्तक साहित्य प्रेमियों को ही नहीं, संगीत प्रेमियों को भी पसंद आएगी जहाँ जनश्रुतियाँ है, दस्तावेज है और संक्षिप्त-जीवनी भी.
शोधपरक किस्सा पढ़ा है आपने कभी? कोठागोई पढ़ लीजिये !
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Topics Covered : Kothagoi by Prabhat Ranjan, Book Review