मैथिली भाषा का उल्लेख होते ही इसका इतिहास लगभग विद्यापति से ही आरम्भ होता है. यदि मैथिली रचनाकारो की लोकप्रियता की बात की जाय तो इस कतार के शीर्ष मे भी महाकवि विद्यापति ही मिलते हैं. लगभग छः शताब्दी उपरांत भी इस मैथिल कवी कोकिल के समतुल्य स्थान आज तक कोई नहीं ले पाया.

हमलोग अपने जीवन काल मे असंख्य लोग, वस्तु व कार्य के प्रति आकर्षित होते है लेकिन प्यार उनमे से नाममात्र से ही हो पता है. उसी तरह एक साहित्य प्रेमी बहुत सारे साहित्यिक पुस्तको का अध्यन करता है किन्तु उनमे मे से ऐसी कुछ ही पुस्तक अथवा रचना पाठक के दिल के करीब आ पाती है.
एक परिचय
समान्यतः किसी व्यक्ति को उसके कर्मो से ही पहचाना जाता है. अगर वह बुरा कर्म कर रहा है तो उसकी पहचान एक खराब इन्सान के रूप मे और यदि वह कुछ अच्छे कार्यो को अंजाम दे रहा है तो समाज मे उसकी छवि एक अच्छे इन्सान के रूप मे बनेगी. उसी प्रकार एक लेखक, कवि या साहित्यकार अपने कृति से ही पहचाने जाते है. कुछ साहित्यकार अपने जीवनकाल मे ही प्रसिद्धि पा लेते है तो कुछ मरणोपरांत. कुछ ऐसे भी हैं जो अपने जीवन काल मे जितने लोकप्रिय थे उतने ही लोकप्रिय पाँच-छः शताब्दी पश्चात् भी हैं.
लेकिन ऐसे साहित्यकार की संख्या अंगुली पर गिनने भर ही है. ऐसे ही एक कवि हैं बाबा विद्यापति और उनकी कलम से निकली रचना – जय जय भैरवि. यह देवी स्तुति मुख्यतः मैथिली एंव अवहट्ट भाषा मे है.
विद्यापति के समय मे संस्कृत भाषा का चलन था. इस संबंध मे इन्होंने टिप्पणी करते हुऐ कहा था “संस्कृत प्रबुद्धजनो की भाषा है तथा इस भाषा से आम जनो को कोई सरोकार नही है.“ प्राकृत भाषा मे वह रस नही है जो आम जन को समझ मे आये और संभवतः इसलिए ही उन्होंने अपभ्रंश भाषा मे रचना की थी.
जय जय भैरवि मिथिला का शीर्ष गान है जिसे कई कलाकारों ने गाया है
विद्यापति के पदो मे कभी घोर भक्तिवाद तो कभी घोर श्रृंगार रस देखने को मिलता है. इनकी रचना को पढ़ते हुऐ पता ही नही चलता है की श्रृंगार सरिता मे डूबते हुए कब भक्ति के सुरम्य तट पर आ खड़े हुए. भक्ति और श्रृंगार का ऐसा संगम शायद ही कही और होगा. विद्यापति को पढ़ने वाला इनको भक्त या श्रृंगारिक कवि के रूप मे मानते है और यह सत्य भी है. उस समय एंव अभी भी भारतीय काव्य एंव सांस्कृतिक परिवेश मे गीति काव्य का बड़ा महत्व है, संभवतः इसी कारण विद्यापति की लोकप्रियता हर कालखण्ड में बनी रही है. विद्यापति के काव्य मे भक्ति एंव श्रृंगार के साथ साथ गीति प्रधानता भी मिलती है. इनकी यही गीतात्मकता इन्हें अन्य कवियों से भिन्न करती है.
जय जय भैरवि …
ऐसे ही इनकी गीतात्मक शैली का एक उदाहरण है ‘जय जय भैरवि असुर भयावनि’ जो मेरी प्रिय रचनाओ मे से एक है. और मैं ही क्यो, शायद ही कोई मैथिली भाषा क्षेत्र का कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसके जिह्वा पर ये गीत ना हो. इसकी लोकप्रियता तो इसी बात से साबित होती है कि मिथिला क्षेत्र का कोई भी शुभ कार्य का आरम्भ इसी से किया जाता है. चाहे आयोजन छोटा हो या बड़ा सबका शुभारम्भ एंव समापन इसी से होता है. पूर्ण रचना कुछ इस प्रकार है :
जय जय भैरवि असुर-भयाउनि, पशुपति – भामिनी माया ।
सहज सुमति वर दिअओं गोसाउनि, अनुगत गति तुअ पाया ।।वासर रैन शवासन शोभित, चरण चन्द्रमणि चूडा ।
कतओक दैत्य मारि मुख मेलल, कतओं उगिलि कैल कूड़ा ।।सामर वरन नयन अनुरंजित, जलद जोग फूल कोका ।
कट कट विकट ओठ फुट पाँड़रि, लिधुर फेन उठ फोका ।।घन घन घनन घुँघर कत बाजय, हन हन कर तुअ काता ।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरि जुनी माता ।।
इस गीत के माध्यम से माँ जगदम्बा के विभिन्न रूपों का वर्णन किया गया है. पहली पंक्ति मे कवि कहते हैं – हे माँ असुरो के लिए तो आप भयानक हैं परन्तु अपने पति शिव के लिए प्रेयसि. वही दूसरी ओर कवि कहते है माँ आपके पैर तो दिन रात लाशो के ऊपर रहता है, परन्तु आपके माथे पर लगा चन्दन मंगटीका की तरह शोभित है. आहा! माँ भगवती के रूप का कितना मंजुल वर्णन. भगवती के रूपों का इतना अच्छा वर्णन शायद ही कही और मिले. गौर करिये कितना बड़ा विरोधाभास ! एक रूप विकर्षक तो दूसरा आकर्षक! और अंत मे कवि कहते हैं:
घन घन घुंघुर कत बाजे, हन हन कर तु काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरू जन माता।।
अर्थात्, हे माते आपके कमर का घुंघरू घन-घन ध्वनी कर रही है तो दूसरी ओर हाथ का खड्ग हन-हन. ध्यान दीजिए कि प्रथम पद में श्रृंगार रस तो दूसरा वीर रस के भाव से भरा. साथ ही कवि कहते है कि मैं आपके चरणों का सेवक हूँ. हे माते ! मुझे मन से उतारियेगा मत. इतने कम शब्दों मे और इतने सारे रसो का प्रयोग करते हुई शायद कोई भक्त ने ऐसी रचना की होगी.
विद्यापति आज भी प्रासंगिक हैं
भौतिकवादी युग मे कविता की पिपासा और भी अधिक बढ़ जाती है. शायद यही वो कारण है जो प्रत्येक मानव को इस प्रांगण मे आकर नतमस्तक हो जाना पड़ता है. और इस रूप मे विद्यापति की रचना सदैव ताजी रहेगी. ध्यान देने वाली बात ये है कि जो साहित्य जातीय ओर युगीन परिस्थिति से उपजता है वह अधिक दिनों तक नही टिक पाता है. परन्तु विद्यापति के काव्य मे एक ओर उनका युग और समाज बोल रहा है तो दूसरी ओर सार्वभौम भावनाओ के स्वर फुट रहे है. शायद यही वो वजह है जो छः शताब्दी गुज़रने के बावजूद विद्यापति आज भी प्रसांगिक है ।
जैसे तुलसी-सूर-कबीर मानवीय भावनाओ की रमणीय अभिव्यक्तियों के कारण कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते, वैसे ही महाकवि विद्यापति की प्रासंगिकता बनी रहेगी.
____________
लेखक : मुकुंद ‘मयंक’ | परिचय : Cost Accountancy की पढ़ाई करने वाले मुकुंद मूलतः छात्र है । शौकिया तौर पर हिन्दी , मैथिली नाटको का मंचन और कविता-कहानी आदि का लेखन ।
संपर्क : फेसबुक , ईमेल : mukundjeemayank@gmail.com