
यह डॉ० मौर्या हैं – हमारे शहर से लगे एक छोटे जिले रामगढ़ से। पेशे से चिकित्सक (डिग्री नहीं परंतु अपने इलाके में नाम बहुत है) तथा विज्ञान में गंभीर रुचि। कुछ सालों से बादलों से बिजली बनाने के शोधकार्य में जुटे हैं। यहाँ तक कि दो-एक नामचीन हिन्दी अखबारों में भी इनके नाम तथा परिकल्पना को जगह भी मिल चुकी है।
कहानी अब शुरू होती है…
डॉ॰ मौर्या अपना शोधकार्य आगे बढ़ाना चाहते थें। परंतु रास्ता बताने वाला कोई नहीं। किसी ने सलाह दी कि किसी शोध संस्थान या इंजीनियरिंग कॉलेज जाइए तथा वहाँ किसी प्रोफेसर से मिलकर अपनी बात रखिए। सो यूँ ही खोजते-ढूँढते एक दिन हमारे संस्थान आ पहुँचे जहाँ पूछे जाने पर बच्चों ने मुझसे मिलवा दिया। जून-जुलाई कि गर्मी, लगभग बारह बजे का समय, पसीने से तर-बतर एक अधेड़ अपने कस्बे से कोसों दूर बस इसी बात के लिए आया था कि कोई ऊसका मार्गदर्शन कर दे। परिचय के बाद उन्होने अपनी सारी बातें रखी। हस्तलिखित सिद्धान्त, सारी नोट कि गयी बातें और फॉर्मूला, कल्पना से बनाया गया डायग्राम इत्यादि। परंतु इसमे एक बहुत बड़ी समस्या थी – सारी बातें सैद्धांतिक तौर पर सरासर गलत तथा अव्यावहारिक थी। मैंने धैर्य से पूरा सुनकर अपनी चुप्पी तोड़ी और क्षमा मांगने हुए उनसे यही कहा – “यह कतई संभव नहीं”। वह दरअसल बादलों से बिजली बनाना चाहते थें जिसकी पूरी तकनीकी जानकारी अपने हिसाब से इकट्ठा कर यहाँ आए थे। फिर मैंने अपना दृष्टिकोण और तर्क रखा। वह मायूस हुए पर माने नहीं। जिज्ञासु भी बहुत थे और संभवतः मेरे जवाब से उतने संतुष्ट नहीं। सो मैंने उन्हें अपने सीनियर से भी मिलवा दिया जिन्होंने फिर से वही तर्क रखे। हमारी आधी बात मानते हुए उन्होंने कहा मैं फिर से सभी बिन्दुओं पर विचार कर दोबारा आऊंगा। फिर वह जब भी कुछ नया इकट्ठा करते, मुझे फोन पर सूचित करते और मैं हर बार उन्हे मायूस करता (वैज्ञानिक आधार को झुठलाया नहीं जा सकता)।
तब से लेकर अब तक वह 2-3 बार हमारे संस्थान भी आ चुके हैं। आज भी आए थे – इस बार ढलती उम्र ने छड़ी के सहारे भेजा। एक घंटे की यात्रा करके। आज उनके पास 3 सरकारी स्कूलों के प्रधान-अध्यापकों की लिखित अनुषंशा भी थी जहाँ वह उनकी बातों को सत्यापित कर रहे थे (यही गलती अखबारों ने भी किया था जिन्होंने खबर मसाला या वैज्ञानिक चमत्कार के तहत छाप तो दिया परंतु इसके तह तक नहीं गए)। मैं और मेरे सीनियर (प्रोफेसर) यह देखकर हतप्रभ थे कि विज्ञान के मूल सिद्धांत के उलट ऐसा कोई कैसे लिख कर दे सकता है (विद्यालयों में विज्ञान के नाम पर क्या और कैसे पढ़ाया जाता है, यह कोई छुपी बात नहीं)। हमने एक बार फिर से उन्हें समझाया तथा क्षमा मांगी कि इस ‘खोज’ को हम सत्यापित नहीं कर सकते तथा यह कल्पना निराधार है। हाँ, सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए वह जो भी करना चाहे, हम भरसक सहायता करेंगे – इसी आश्वासन से उन्हे पुनः समझाया। परंतु उनके मुखमंडल से इतना अवश्य प्रतीत हो रहा था कि मानेंगे नहीं। जाते-जाते पीएमओ तक कि बात कह गए। हमने भी ज्यादा मना करना उचित नहीं समझा। मिलते रहने कि बात कर विदा ली।
अब…
ऊपरी प्रकरण का मकसद यह इंगित करना नहीं कि उन्होने जो भी दिखाया-बताया या करना चाहते हैं वह मात्र कपोल कल्पना पर आधारित है। मैं उनसे बस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर असहमत था (और रहूँगा)। परंतु पिछले 2 सालों में जो जज़्बा, लगन, समाज सेवा का भाव (बादल से बिजली बनाकर गरीबों को बाँटना), विज्ञान में रुचि इत्यादि उनमे देखा है, मेरे लिए सदा प्रेरणा बने रहेंगे। मैं अपने छात्रों को भी सदा उनका उदाहरण देता हूँ कि कैसे एक 70-75 वर्ष का वृद्ध पूरे जुनून से उस कार्य के पीछे लगा है जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संभव नहीं, फिर भी अपना ‘शोध’ जारी रखा है। उनके पास न कोई संसाधन है और न ही कोई आर्थिक सहायता। भौतिकी के छात्र भी नहीं थे और न अब पढ़ने की उम्र। एक बार इंटरनेट की मदद लेनी चाही तो गूगल ने ‘Thunder’ लिखने पर ‘दारू’ वाला पन्ना दिखा दिया (Thunderbolt)! फिर भी ‘मानूँगा नहीं-हारूँगा नहीं’ वाली बात पर अडिग हैं। इसी कारण वह सरासर गलत होते हुए भी सही हैं।
मुझे भी उनके लिए किसी चमत्कार की अपेक्षा है, परंतु विज्ञान मुझे रोकता है। ईश्वर उन्हे लंबी आयु दें…
Topics Covered : Hindi Short Story, Laghukatha, Indian Scienists, Inspirational Story