लप्रेक – है क्या यह ? हिंदी जगत में यह सवाल साल के शुरुआत में अच्छा उछला था और लोग अब भी कभी कभार पूछ ही देते हैं। परन्तु इसे जानने समझने से पहले एक खुद हिंदी साहित्य से जुड़े पूर्वाग्रह स्पष्ट करना चाहूँगा। जहाँ हिंदी साहित्य अब तक आंचलिक पृष्ठभूमि में ही पालित और पोषित माना जाता था। और जहाँ हिंदी साहित्य अब तक गाँव-घर, जमींदार-बट्टेदार, शोषक-शोषित इत्यादि के किरदार वालों कहानियों का पर्याय माना जाता था। और जहाँ हिंदी की सभी रचना कालजयी मापदंडों पर ही तौली जाती थी। और जहाँ हिंदी साहित्य शुद्धतावाद और यथार्थवाद का प्रतिनिधित्व करते हुए ‘मठाधिशों’ के अधिकार क्षेत्र में आने वाली एकमात्र कला थी। और जहाँ लेखनी व्यावसायिक दृष्टिकोण से कभी नहीं चलायी गयी … वहीँ हिंदी में नित नयी और नवीन प्रस्तुति संभवतः इसके पुनरुत्थान का कारण बने !

प्रेमचंद से लेकर फनीश्वरनाथ रेणु अगर आंचलिक कथाकार रहकर अपने युग के अगुआ रहे तो नीलेश मिश्रा, रविश तथा कुछ अन्य युवा लेखक ‘युवा हिंदी’ के पुरोधा तो कहे ही जा सकते हैं (कुछ लोगों के लिए अतिश्योक्ति ही सही)। गाँव के बाद हिंदी के लिए मुझे ‘शहर’ शब्द बड़ा शुभ सा प्रतीत हो रहा है । वह चाहे ‘नीलेश मिश्रा का याद शहर’ हो या ‘इश्क़ में शहर होना’, यह संभवतः सुखद संयोग ही है जहाँ हिंदी रचना युवा पाठक बड़े चाव से पढ़ने-सुनने लगे हैं। अलगू, होरी और हिरामन के अलावा कहानियों में अब तृषा और तन्मय नाम से नए किरदार भी आने लगे हैं
‘लप्रेक’ (लघु प्रेम कथा) किस्सागोई का नैनो संस्करण है जहाँ चंद शब्दावली में कहानी गढ़ी जाती है। यहाँ कहानियाँ नैनो है – न्यून नहीं
वैसे यह ‘लप्रेक’ है क्या बला ?
खैर, उपरोक्त भूमिका हिंदी के हाल पर थी जहाँ रुढ़िवादी ‘लप्रेक‘ पर अपनी आपत्ति या असहमति जता सकते हैं। लप्रेक राजकमल प्रकाशन (‘सार्थक’ imprint) द्वारा शुरू की गयी ‘लघु प्रेम कथा’ की एक श्रृंखला है जहाँ कहानियाँ किसी फेसबुक के मध्यम स्टेटस जितने छोटे-बड़े हो सकते हैं। इसे नैनो कहानियों का संग्रह या फेसबुक-फिक्शन भी कह सकते हैं। ‘इश्क़ में शहर होना’ इस श्रृंखला की पहली कड़ी है। हिंदी का यह प्रयोग अगर सफल रहा तो कालांतर में संभवतः ‘लप्रेक’ शब्द ख़ुद-ब-ख़ुद एक नयी प्रवृत्ति या गद्य की श्रेणी बन जाए। साहित्य जगत में इसे कितना और कैसा स्थान मिले, यह तो पाठक और समय ही तय करेंगे।
हिंदी के वर्तमान हालात को लेकर मेरा मन सर्वदा संशय से घिरा रहता है। यही एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ में अपने को निराशावादी कहने में नहीं हिचकिचाता। उसमे राजकमल प्रकाशन का ‘लप्रेक’ वाला प्रयोग, नीलेश मिश्रा का रेडियो प्रोग्राम तथा उसका मुद्रित संस्करण (वाणी प्रकाशन ने भी गत वर्ष Nine Books के साथ करार करके नयी हिंदी की ओर रुख किया है), शैलेश भारतवासी का ‘हिन्द युग्म’ और युवा लेखन द्वारा हिंदी में ‘बेस्टसेलर’ की कल्पना आशा की एक नयी किरण बनकर उभरती है। नयी भाषा का मतलब व्याकरण-वर्तनी से इतर कचरा साहित्य का लेखन कतई नहीं है – यह बात दिग्गजों को भी मान लेनी चाहिए। वहीँ वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र राव लप्रेक को प्रेम कथा का वामन अवतार भी कहते हैं !
रूमानी कहानी का वामन अवतार है ‘लप्रेक’
लप्रेक को ‘बाज़ार’ में लाने के लिए रवीश जी, सत्यानंद निरुपम जी, राजकमल प्रकाशन समूह तथा उन अन्य व्यक्तित्वों का साधूवाद जिन्होंने कुछ और नहीं तो कम से कम आलोचकों की भौहें जरूर चढ़ा दी (प्रश्न वाचक मुद्रा में ही सही)। राजकमल प्रकाशन का मैं एक पाठक के तौर पर पुरज़ोर आलोचक रहा हूँ, परन्तु ‘लप्रेक’ जैसे नए ट्रेंड को देख उनसे ज्यादा हर्षित मैं हूँ। हिंदी साहित्य जगत में प्रयोगवाद के तहत ऐसे पहल सराहनीय है जिसका पुरजोर स्वागत होना ही चाहिए। परन्तु हाँ, इनकी विशिष्टता तभी बरकरार रहेगी जब छप रही सामग्री स्तरीय हो। देखा-देखी कलम बहुत सारे थामे जायेंगे, परन्तु उत्तम स्याही बहे तो और बेहतर।
हाइकू (Haiku) को हिंदी ने अन्तर्निहित किया तो लप्रेक भी सफ़ल विधा बनाई जा सकती है – इसमें हर्ज क्या है?
और अंत में …
आशा है लप्रेक रचनात्मकता और बाज़ार के पहलू का एक साथ ख्याल रखेगा जिससे दिग्गज भी चुप रहे और दाम भी मिले। हाइकू (Haiku) को हिंदी ने अन्तर्निहित किया तो लप्रेक भी सफ़ल विधा बनाई जा सकती है – इसमें हर्ज क्या है ? एक पाठक के तौर पर लप्रेक को मेरा पूरा समर्थन है और आशा है अन्य प्रकाशक भी इस प्रयोग को नया आयाम देंगे।
Keywords : What Is Laprek, Hindi Short Stories
mujhe aap ka yh “jalebidaar” lekh padh ker bhi nhi pta chla yah laprek kya hai agar aur koi jwaab ho to #umu234 per tweet ker bta de bdi aseem kripa hogi.
कभी-कभी होता है ऐसा कि लाख प्रयासों के पश्चात् भी चीज़ें समझ से परे लगती है. परन्तु इसके लिए खुद को इतनी हीन भावना से न देखें. अगर रुची है तो ‘लप्रेक’ श्रृंखला की कोई पुस्तक उठा लें, संभवतः वह मार्गदर्शन करे. अन्यथा, किसी पुस्तक तथा विधा को नकारना पाठक के अधिकार क्षेत्र में है ही !