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हिंदी जंक्शन

फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ लिखित मैला आँचल निहायत ही रद्दी उपन्यास है

'मैला आँचल' उपन्यास के लिए फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने खुद एक अनोखा विज्ञापन दिया था जिसमे उन्होंने अपने आलोचकों की खूब चुटकियाँ ली थी. मुख्यधारा से हटकर आंचलिक उपन्यास लिखने पर उन्हें हेय दृष्टि से भी देखा गया. पुस्तक की सफलता के पश्चात् यहाँ उन्होंने वह सब बातें रखी जो उनकी भाषा शैली पर चोट करते थे. ध्यातव्य है कि फनीश्वरनाथ 'रेणु' की प्रतिनिधि रचना होने के साथ-साथ 'मैला आँचल' हिंदी साहित्य के लिए एक मील का पत्थर भी है.

in साहित्य एवं पुस्तक समीक्षा
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मैं एक बार रेल द्वारा दिल्ली से अपने शहर वापस आ रहा था. सुबह के पांच बजे अचानक ‘घटिया चाय पीजिये … बेस्वाद चाय पीजिये’ की चिंघाड़ से नींद खुली. चाय खरीदने वाले आधे से ज्यादा लोग वही थे जो इस ज़बरदस्त ‘मार्केटिंग स्टंट’ के प्रभाव में आ गए. और बचे-खुचे वो जो इसका स्वाद पहले भी चख चुके थें. वो जो चुस्कियाँ ले रहे थें, उनके मिजाज़ को ताड़ने की कोशिश की तो पता चला चाय वाकई जायकेदार थी. उस चालाक चायवाले ने ग्राहक भी इकट्ठे कर लिए और उन्हें उम्दा चाय भी पिलाया. बच्चा उस वस्तु को अवश्य हाथ लगाएगा जिसके लिए उसे मना किया जाता है. बताई गयी नकारत्मक चीज़ों के प्रति हमारा यह मनोवैज्ञानिक आकर्षण प्रौढ़ावस्था तक रह जाता है. रेणु भी इस मनोविज्ञान से भली भांति परिचित होंगे, सो उन्होंने ‘घटिया चाय …’ की तर्ज पर ही अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ का एक नकारात्मक शैली में विज्ञापन दे डाला!

Maila Aanchal Hindi Novel by Phanishwarnath Renu
‘मैला आँचल’ अपने जमाने में मुख्यधारा से अलग कृति थी

इस विज्ञापन में स्वालोचना भी है जिसे मनुष्य मात्र दो स्थितियों में करता है. पहला, जब खुद की गलती से आत्मसात होता है. दूसरा, जब उसे अपने आलोचकों का मूँह बंद करना होता है. फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने जब प्रकाशन समाचार (जनवरी 1957) में ‘मैला आँचल’ का एक विज्ञापन खुद से लिखा था तो इसमें उन्होंने अपने आलोचकों को आड़े हाथ लेते हुए उनकी खूब चुटकियाँ ली थी ! [su_pullquote]लेखकों द्वारा खुद की पुस्तकों का प्रचार एक ऐसा विषय है जिसे हिंदी साहित्य जगत में क्लिष्ट एवं हीन कार्य की संज्ञा प्राप्त है[/su_pullquote]एक अन्य मसले की बात करें तो लेखकों द्वारा खुद की पुस्तकों का प्रचार एक ऐसा विषय है जिसे हिंदी साहित्य जगत में क्लिष्ट कार्य की संज्ञा प्राप्त है. महंतों की राय में यह एक ऐसा कृत्य है जिससे कलम पेट पर बंध जाने की अनुभूति होने लगती है. हालाँकि अब बदलाव आना शुरू हुआ है तथा सोशल मीडिया की मदद से महज़ प्रकाशकों के भरोसे न रहकर लेखक भी अपने पहुँच के अनुसार कई प्रतियाँ निकलवाने का दमखम रखते हैं. रेणु जी के इस विज्ञापन को साझा करने की एक मंशा यह भी है कि उन आलोचकों को पता चले कि प्रचार-प्रसार तब भी था और अब भी होना ही चाहिए. आप क्या आत्मसंतुष्टि हेतु पुस्तक लिख रहे हैं या पाठकों को पढ़वाने के लिए ?

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फणीश्वरनाथ रेणु का यह विज्ञापन उपरोक्त तीन सन्दर्भों को एक साथ जोड़ता है – नकारात्मक प्रचार के मनोविज्ञान से लाभ उठाना, आलोचकों के सीने पर मूंग दलना तथा लेखक भी अपने पुस्तकों का प्रचार कर सकते हैं.

प्रस्तुत है कथित विज्ञापन का शब्दशः संस्करण

‘मैला आँचल’ ? वही उपन्यास जिसमे हिंदी का एक भी शुद्ध वाक्य नहीं है ? जिसे पढ़कर लगता है कि कथानक की भूमि में सती-सावित्री के चरण चिन्हों पर चलने वाली एक भी आदर्श भारतीय नारी नहीं है ? मद्य-निषेध के दिनों में जिसमे ताड़ी और महुए के रस की इतनी प्रशस्ति गाई गई है कि लेखक जैसे नशे का ही प्रचारक हो. सरकार ऐसी पुस्तकों को प्रचारित ही कैसे होने देती है जी !

वही ‘मैला आँचल’ न जिसमे लेखक ने न जाने लोक गीतों के किस संग्रह से गीतों के टुकड़े चुराकर जहाँ-तहाँ चस्पा कर दिए हैं ? क्यों जी, इन्हें तो उपन्यास लिखने के बाद ही इधर-उधर भरा गया होगा?

‘मैला आँचल’ ! हैरत है उन पाठकों और समीक्षकों की अक्ल पर जो इसकी तुलना ‘गोदान’ से करने का सहस कर बैठे ! उछालइये साहब, उछालिये ! जिसे चाहे प्रेमचंद बना दीजिये, रविंद्रनाथ बना दीजिये, गोर्की बना दीजिये ! ज़माना ही डुग्गी पीटने का है !

तुमने तो पढ़ा है न ‘मैला आँचल’ ? कहानी बताओगे ? कह सकते हो उसके हीरो का नाम ? कोई घटना-सूत्र ? नहीं न ! कहता ही था. न कहानी है, न कोई चरित्र ही पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक छा सका है. सिर्फ ढोल-मृदंग बजाकर ‘इंकिलास ज़िंदाबाग’ जरूर किया गया है. ‘पार्टी’ और ‘कलस्टर’ और ‘संघर्क’ और ‘जकसैन’ – भोंडे शब्द भरकर हिंदी को भ्रष्ट करने का कुप्रयास खूब सफल हुआ है.

मुझे तो लगता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में या यूँ कहूँ कि हिंदी-साहित्यिकों की आँखों में, ऐसी धुल-झोंकाई इससे पहले कभी नहीं हुई. ‘मैला आँचल’, ‘मैला आँचल’ सुनते-सुनते कान पाक गए. धूल-भरा मैला-सा आँचल ! लेखक ने इस धूल की बात तो स्वयं भूमिका में कबूल कर ली है एक तरह से !! फिर भी …

अरे, हमने तो यहाँ तक सुना है, ‘मैला आँचल’ नकल है किसी बंगला पुस्तक की और बंगला पुस्तक के मूल लेखक जाने किस लाज से कह रहे हैं, ‘नहीं ‘मैला आँचल’ अद्वितीय मौलिक कृति है.’ एक दूसरे समीक्षक ने यह भी कह दिया, जाने कैसे, कि यदि कोई कृतियाँ एक ही पृष्ठभूमि पर लिखी गयी विभिन्न हो सकती है तो ये है !

पत्थर पड़े हैं उन कुन्द जेहन आलोचकों के और तारीफ़ के पुल बंधने वालों के जो इसे ग्रेट नावल कह रहे हैं. ग्रेट नावल की तो एक ही परख हमे मालूम है, उसका अनुवाद कर देखिये ! कीजिये तो ‘मैला आँचल’ का अनुवाद अंग्रेजी में, फिर देखिये उसका थोथापन !

अरे भाई, उस मूरख, गंवार लेखक ने न केवल समीक्षाकों को ही भरमाया है, पाठकों पर भी लद बैठा है. देखते-देखते, सुनते हैं, समूचा एडिशन ही बिक गया – न्यूज़प्रिंट के सस्ता कागज़ पर छपा. एक कॉपी भी नहीं मिलती कई महीनों से !

(‘प्रकाशन समाचार’ जनवरी 1957 में प्रकाशित यह विज्ञापन स्वयं फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने तैयार किया था)

इस लेख का शीर्षक भी रेणु जी के इसी ‘कृत्य’ पर आधारित है. आशा है उनके प्रशंसक शांत हो गए होंगे ! रही-सही भड़ास आप नीचे टिप्पणी के रूप में दर्ज कर सकते हैं.

इस्सस …

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Topics Covered : Maila Aanchal by Phanishwarnath Renu, Classic Hindi Novel

Tags: Book ReviewsPhanishwarnath RenuRajkamal Prakashan
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