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‘वो अजीब लड़की’ कहानी संग्रह – तीन क़लम तीन समीक्षा

कोई समीक्षा तब और भी ज्यादा निष्पक्ष प्रतीत होती जब एक से ज्यादा लोग इसपर अपनी राय रखे - वह भी बिना किसी पूर्वाग्रह के। प्रियंका ओम द्वारा लिखी गयी 'वो अजीब लड़की' कैसी पुस्तक है, इसपर अपनी राय रख रहे हैं सत्य प्रकाश असीम, गीताश्री और भारती गौड़।

in साहित्य एवं पुस्तक समीक्षा
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‘वो अजीब लड़की’ प्रियंका ओम की पहली पुस्तक है। जितनी प्रतिक्रियाएँ इसे अभी तक मिली है, वह नवलिखित रचनाओं के संदर्भ में अप्रत्याशित है। पुस्तक की अगर कहीं कटु आलोचना हुई है तो बहुतों ने इसे सराहा भी है। कुछ इसे औसत भी कह गए। चूँकि अंतिम निर्णायक पाठक ही होता है, इसलिए यहाँ तीन विभिन्न लेखकों एवं स्तंभकारों ने अपनी बेबाक टिप्पणी दी है – एक वृहद समीक्षा के रूप में!

पढ़कर आप ही तय करें कि कैसी है ‘वो अजीब लड़की’!

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Wo Ajeeb Ladki by Priyanka Om - Book Review
वो अजीब लड़की – प्रियंका ओम

सत्य प्रकाश असीम: संपादक, जाने-माने  स्तंभकार, आलोचक एवं विभिन्न मीडिया में सक्रिय लेखन एवं प्रस्तुति

Satya Prakash Aseemसीमोन द बुऑ (द सेकेंड सेक्स) और इस्मत चुगतई (लिहाफ) की कतार में अपनी पहली ही किताब ‘वो अजीब लड़की’ के साथ पूरी मजबूती से खड़ी हो गयी हैं प्रियंका ओम।

‘सॉरी’ से शुरू तथा ‘लावारिस लाश’ और ‘मृगमरीचिका’ होते हुए ‘फिरंगन से मुहब्बत’ पर आकर एक मैच्योर, बेबाक और अल्ट्रा-बोल्ड प्रियंका ओम पाठकों से रूबरू होती हैं। कथा-संग्रह की शीर्षक कहानी ‘वो अजीब लड़की’ पर अधिक चर्चा नहीं करूँगा।

खोखली सामाजिक वर्जनाओं और जबरन लादे गये निषेधों के खिलाफ एक रचनात्मक आन्दोलन है ‘वो अजीब लडकी’। यौन-विकृतियों,यौन -कुंठाओं और सहज यौनाकर्षण से प्रभावित -प्रताडित मानव मन का जीता-जलता दस्तावेज है ‘वो अजीब लडकी’।

मेरी समझ से सभी चौदह कहानियों में अगर ‘इमोशन’ इस्मत चुगतई और सिमोन द बुऑ की याद ताजा करती है तो ‘लाल बाबू’ निश्चित रूप से ग्रामीण जीवन के पारवारिक परिवेश और उसमें बेहद निजी रिश्तों की बारीकियों का वर्णन हमें ख्वाजा अहमद अब्बास की याद दिलाता है। दूसरी ओर बड़े कुनबे में नयी-नवेली बहू और लालबाबू के बीच या लालबाबू और छोटकी चाची के बीच ‘इनसेस्ट’ रिलेशन्स की बिन्दास-बयानी प्रियंका को सआदत हसन मंटो के आसपास स्थापित करती है।

कुछ अंश देखें …

‘चाची कौउन सी रेखा थी जो इतना बडा जोखिम ले लिया … उस दिन उसी ने कहा कि आज रात को आ जाओ लल्ला, तुम्हार चच्चा तो …रखवाली के लिए।” (पृष्ठ 109) और नयी बहू की बानगी “दोनों खुशी-खुशी घर से निकल गयीं और उनके जाते ही लालबाबू सीधा उसकी कोठरी, जो अंदर से बंद नहीं थी में घुस बाज की तरह झपट्टा मार कर उसे नोचने ही लगे थे कि उसने घुटे हुए शब्दों में कहा था, “दाग पड जाएगा तो इनको का जवाब देंगे हम?” … साड़ी ठीक करते हुए अदितवा की कनियाँ ने पूछा था।” (पृष्ठ 112)

गरज ये कि पूरे संग्रह में ‘लालबाबू‘ सर्वश्रेष्ठ कहानी कही जा सकती है।

‘वो अजीब लड़की’ में सबसे बोल्ड कहानी है ‘इमोशन‘। इमोशन के बारे में इतना ही कहूँगा कि स्वान्त: सुखाय बनी एक कॉलगर्ल की कथा इतनी सेंसिविटी के साथ लिखना और इसी बहाने समकालीन कथित सभ्य समाज को आइना भी दिखा देना मामूली बात नहीं है। “वैसे तो ये सारा दिन … लेकिन रात को … मुझ जैसी किसी रात की रानी … में पडे होते हैं। ऐसा नहीं कि इनकी बीबियां … राजसी गद्दे पर किसी जिगोले के साथ बिताती हैं ।” (पृष्ठ 129)। ऐसे ही एरिक सर के साथ उसके अनुभव … “उसने लड़के के शर्ट की बटन को खोलते हुए आगे कहा … मॉर्निंग शो … बढ़ जाती थी। लड़के ने जरा भी विरोध नहीं किया … उसके मुँह को खोलने लगा था।” (पृष्ठ 132 )।

ये सब कुछ बोल्ड है, किन्तु बोल्डनेस कहीं भी स्टफ्ड या या ऊपर से तीखापन बढ़ाने के लिए छिड़के गये गरम मसाले जैसा बिलकुल नहीं है बल्कि चरित्रों की सहज अभिव्यक्ति का हिस्सा लगता है।

मसलन …

“वो शायद किसी यूरोपियन के मनोरंजन और इंडियन की मजबूरी का परिणाम … को इससे कोई फर्क नहीं पडता।” (लावारिस लाश, पृष्ठ 28)

“रात की चाँदनी में चमकती हुई सफेद रेत पर उसका चमकीला शरीर … उसने कहा मैं प्रॉस्टीच्यूट हूँ।” (फिरंगन से मोहब्बत, पृष्ठ 63)

“सोचती है बंद कमरे में किया जाने वाला काम लोग पैसे खर्च करके … खैर लोगों के अपने-अपने शौक हैं” (वो अजीब लड़की, पृष्ठ 100)

‘दोगला’, ‘बाबा भोलेनाथ की जय ‘और ‘खुदगर्ज’ कुछ अलग जॉनर पठनीय कहानियाँ है।

‘सौतेलापन ‘और ‘मौत की ओर’ रिश्तों के एक बहुत बड़े आयाम को समेटती हुई कहानियाँ है जो बताती हैं कि प्रियंका ओम ‘इमोशन’ से दूर यथार्थ के धरातल पर नैसर्गिक प्रेम और विछोह की पीड़ा से पाठकों को जारजार रुलाने की भी क्षमता रखती हैं। वैसे ये दोनों कहानियाँ एक सम्पूर्ण उपन्यास की सिनॉप्सिस सी लगती हैं।

‘फेयरनेस क्रीम’ में किशोरवय के विपरीतलिंगी आकर्षण की अबूझ और तिलस्मी दुनिया का बेहद खूबसूरत चित्रण किया है प्रियंका ने। “विजय का सबस पहले सम को साल्व कर के ‘मैम आइ डन’ कहने पर कुछ दिन तक तो मैम ने रेस्पांस किया लेकिन बाद में इग्नोर… क्योंकि …और मनीष बहुत गोरा …।” (फेयरनेस क्रीम, पृष्ठ 141)

“आज उसे लेडी डारसी की बिलकुल भी याद नही आई। आज उसपे शिफॉन की पतली और हल्की साड़ी पहनी वंदना मैम तारी थी जो कभी खुद बारिश में भीग रही थी तो कभी उसपे बारिश कर रही थी।” (पृष्ठ 142)

इस पहले संग्रह में ही लेखकीय प्रस्तावना नहीं लिख कर प्रियंका ने पाठको की मेधा पर भरोसा कर अच्छा उदाहरण पेश किया है। ‘वो अजीब लड़की’ खोल गयी है अपनी रचयिता के लिए अपार संभावनाओं के द्वार।


गीताश्री: लेखिका, संपादक एवं साहित्य सर्किट में एक चर्चित नाम

geetasgree writerवो लड़की बड़ी अनजानी है … अनदेखी … अनसुनी है।

जाने किस भरोसे मुझ तक आई है। शायद उसको भरोसा है कि मैं पाठक बहुत अच्छी और समझदार हूँ। कोई शक!

आज मिलवाती हूँ एक प्रवासी (तंज़ानिया निवासी) युवा कथाकार से जिसकी कहानियाँ पसंद है मगर उसके ट्रीटमेंट को लेकर थोड़ी असहमति हैं। असहमति का मतलब ये नहीं कि उसे ख़ारिज कर फतवा जारी कर दूँ। वह लिख रही है ऐसे माहौल में, वो क्या कम दिलेरी की बात है? यह ठीक है कि उत्साही, विद्रोही कथाकार बहुत लाउड हो जातें हैं किसी-किसी कहानी में परंतु बहुत प्रैक्टिकल फ़ैसले मुझे दहला देते हैं – जीवन हो या कथा।

ख़ैर …

कहानियाँ पढ़ के संतुलित सी टिप्पणी!

युवा कथाकार प्रियंका ओम की कहानियाँ अभी बनने की प्रक्रिया में हैं। थोड़ी कच्ची तो थोड़ी अनगढ़! विषय के स्तर पर कहीं न कहीं विराट मानवीय दृष्टि का अभाव इसका कारण जान पड़ता है। अपनी सीमित दृष्टि की सीमाओं के बावजूद ये कहानियाँ अपने समय और समाज की विंडंबनाओ की शिनाख्त करती है और उनके बीच तोड़ मचाती हुई बिना किसी आदर्शवादी समाधान के बाहर निकल आती है। संग्रह की हर कहानी मौजूदा दौर के भयावह सवालों से टकराती है। कहीं उनके निर्मम जवाब हैं तो कहीं-कहीं उनके अतार्किक जवाब भी चौंका देते हैं।

शायद नयी पीढी की सोच में बदलाव का असर है जिससे लाज़िमी है कि कहानियाँ भी बदलेंगी। सवाल और जवाब भी अलग होंगे। चाहे जवाब कितना निर्मम क्यों न हो। चाहे पाठक को हज़म हो न हो।

कह सकते हैं कि प्रियंका ओम की कहानियाँ बदलते समय की आहट हैं। नये क़िस्म के मूल्य गढ़ रही हैं और जिसके पास परंपरागत समस्याओ के अपने निदान हैं। सवालों के ख़ुद गढ़े गए जवाब हैं। फ़ैसले थोपे जाने के विरुद्ध ख़ुद फ़ैसले लेने का माद्दा है।

उनकी कहानियाँ किसी व्यामोह में नहीं पड़ती जो स्त्री को ग़ुलाम बनाए रखने का काम करे या कमज़ोर करे। स्त्री विमर्श का जो मूल लक्ष्य है कि स्त्री को फ़ैसले लेने की स्वतंत्रता हो तथा वह थोपे गए पितृसत्तात्मक मूल्यों से बाहर आए, प्रियंका की अधिकांश कहानियाँ इस पर खरी उतरती हैं। यह सच है कि रुढियां टूटती हैं तो कुछ कड़े फ़ैसले लेने पड़ते हैं। इनकी कहानियाँ निर्मम फ़ैसलों से गुज़रती हुई बहस को जन्म देती हैं। रचना की सफलता यही है कि वह सवाल उठाए, चोट करे, प्रतिरोध जताए और बहस को नयी दिशा दे।

नयी पीढी की लेखिकाओं में प्रियंका गंभीर विमर्श खड़ा करती हैं।

शुरुआती दौर की कहानियाँ बहुत रोष से भरी होती हैं। ऐसे में रचना कई बार अपनी ज़िम्मेदारी से चूक सकती है। उसे संभाले रखना बहुत बड़ा कौशल है. प्रियंका की ये कहानियाँ शुरुआती दौर की हैं जो बहुत उम्मीद जगाती हैं। भले ये बहुत सफल या शानदार कहानियाँ न लगें, किसी अंधेरे कोने की तरफ ऊँगली जरुर दिखा देती हैं। उत्तर आधुनिक कहानियाँ ऐसी ही होंगी। इस तरह प्रियंका अपने पहले संग्रह से सफल कोशिश करती दिखती हैं तथा भविष्य के लिए आश्वस्त भी करती हैं।

प्रियंका को नई वाली हिंदी के कथाकारों की जो खेप आई है, उनमें शामिल माना जाए। वही तेवर, वही भाषा और वही काल खंड।

पूरी पीढ़ी एक समय में बदलते समाज को नाख़ून गड़ा कर पकड़ रही है – थोड़ी चुभन तो लाज़िमी है!


भारती गौड़ : लेखिका, साहित्य प्रेमी एवं सलाहकार

bharti gaudमहीन निरीक्षण, कड़वा मीठा अनुभव और प्रभावित करने वाली काल्पनिकता का निचोड़ है लेखिका प्रियंका ओम की कहानी संकलन ‘वो अजीब लड़की’। ‘वो अजीब लड़की’ को एक बार पढ़ लेना चाहिए। खासकर उन पाठकों को जो थोड़ी अलग और नयी कहानियों की तलाश में हैं। संकलन में हर कहानी अच्छी हो और आपको भा जाए – ये ज़रूरी नहीं, लेकिन होता क्या है कि दरअसल कुछ कहानियाँ आपके दिल दिमाग पर वार करती हैं और उन्हें आप अच्छी कहानियाँ कहते हैं। जबकि कुछ कहानियाँ हर रूप में सारे ही किस्म के पाठकों के लिए अच्छी बन पड़ती है।

“मुझे ताज्जुब होता है जो पुरुष घर में अपनी पत्नी का जूठा नहीं खाते वही पुरुष रात वेश्या के साथ कैसे बिताते हैं!” फिरंगन से मोहब्बत

‘वो अजीब लड़की’ इस मायने में भी पढ़े जाने लायक है क्योंकि इसमें चाय, कॉफ़ी-टेबल, कॉलेज, आय लव यू-आय लव यू टू की रट नहीं है। इन चीजों से अब ढंग का पाठक उकता चुका है। हाँ अगर सन्दर्भ में हो और प्रासंगिक हो तब इनको लिखना गलत भी नहीं, लेकिन फ़र्ज़ी का घुसपैठ हर तरह की बातों में करवाकर आप अपनी किताब से ज़बरदस्ती प्यार नहीं करवा सकते। प्रियंका ओम ने इन बातों से जायज़ परहेज़ किया है।

कुल 14 कहानियों का संकलन है। फ़र्ज़ी का दार्शनिक पुट नहीं है। जैसा आप और हम किसी वाकये के घटित होने के दरमियाँ या घट जाने के बाद महसूस करते हैं, उस को वैसा का वैसा ही लिखा गया है। कहानियाँ सारी एक-दूसरे से अलग है। कुछ एक सब्जेक्ट पुराने हो सकते हैं लेकिन ट्रीटमेंट नया दिया गया है। बिलकुल वैसे ही जैसे प्रेम पर बनने वाली हर फिल्म ट्रीटमेंट की वजह से अलग-अलग लगती हैं। कहानियों में महत्वपूर्ण ट्रीटमेंट ही होता है – विषय नहीं।

‘लाल बाबू’, ‘वो अजीब लड़की’, ‘यादों की डायरी’, ‘इमोशन’, ‘फिरंगन से मोहब्बत’ और ‘सॉरी’ मुझे ज़्यादा पसंद आई। ज़िंदगी की वो कड़वी हकीकतें जिनसे बेतुके आवरणों के माध्यम से हम बच निकलने का स्वांग रचते बाज नहीं आते, उन्हें तल्ख़ लहज़े से कागज़ पर सपाट उतार दिया गया है। कुछ जगहों पर तो लगा भी नहीं है कि लेखिका की पहली किताब है। वैसे भी मेरा ये मानना है कि पहली किताब को और वो भी जो इस तरह से लिखी गयी हो, को समीक्षा की दृष्टि दी जानी चाहिए आलोचना की नहीं।

प्रियंका ओम की कहानियाँ अपरिपक्व या बचकानी तो बिल्कुल ही नहीं हैं। ऐसा फिलहाल बहुत ही कम ही देखने को मिल रहा है कि इस तरह की कहानियाँ पढ़ने को मिल जाए। मेरा दुर्भाग्य रहा कि इसका तीसरा संस्करण पढ़ रही हूँ – पहला ही हाथ आ जाना चाहिए था! दरअसल आप कहानियों की गहराई उनके अंत से जान सकते हैं और इन कहानियों का अंत बहुत ही परिपक्व है क्योंकि सीधे अंत आपको कहीं नहीं पहुँचाते। जो अंत आपको कहानी की शुरुआत तक फिर से पहुँचा दे और आगे बहुत देर तक ये सोचने पर मजबूर कर दे कि ऐसा क्यों हुआ, वही अंत कहानी की जान होते हैं। लेखिका ने सारी कहानियों में लगभग वैसी ही जान फूंकी है।

मुझे वैसे भी वो कहानियाँ आकर्षित करती हैं जिनमें दो पात्रों के बीच हो रहे संवाद हेतु ये ना लिखा गया हो कि “मैंने ऐसा कहा, उसके बाद उसने ऐसा कहा, वो ऐसे देख रहा था वो ऐसे घूर रही थी वगैरह-वगैरह। कहानी ऐसी रफ़्तार से चलनी चाहिए जहाँ निभाए जा रहे संवादों से पाठक स्वयं वहाँ तक पहुंचे जहाँ तक लिखने वाला पहुँचाना चाह रहा है। इन कहानियों में आपको वो रफ़्तार और वो आकर्षण मिल जाएगा।

एक बात कह ही देनी चाहिए मुझे, किताब का तीसरा संस्करण है, बावजूद इसके किताब के आगे पीछे कोई भूमिका नहीं बाँधी गयी है। सीधा ही कहानियों से मुख़ातिब होइए। कहानी संकलन के नाम पर जो सियापा हो रहा है उससे इतर ये कृति आपको सुकून ही पहुँचाएगी।

“लोकल बसों में भी फाइल दुपट्टे की तुलना में ज़्यादा प्रोटेक्टिव है।” –लावारिस लाश (वो अजीब लड़की)


Topics Covered: Wo Ajeeb Ladki Book Review, Priyanka Om, Latest Hindi Books, Nayi Wali Hindi, Hindi Bestsellers

Tags: Anjuman PrakashanPriyanka Om
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Comments 1

  1. Arun Singh says:
    3 years ago

    Really Nice.

    Would like to read this book.

    Reply

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