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हिंदी जंक्शन

प्रियंका ओम की ‘वो अजीब लड़की’

नाम कॉमन हो सकता है - परन्तु कहानियाँ नहीं. सच लिखतीं हैं. बेहिचक लिखतीं हैं. बिंदास लिखतीं हैं. इनकी कहानियों में समाज का कड़वा सच है. जिंदगी की फंतासियाँ है तो जादुई यथार्थ भी. रिश्तों की नाजुक डोर है तो स्वार्थ की गांठ भी. यह कोई और नहीं 'वो अजीब लड़की' है.

in साहित्य एवं पुस्तक समीक्षा
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‘वो अजीब लड़की‘ प्रियंका ओम की पहली कहानी संग्रह है जिसकी विषय-वस्तु आधुनिक समाज के परिधि में है. नवोदित हिंदी लेखकों को यह सफलता कम ही मिल पाती है. प्रस्तुत है लेखिका से बातचीत के आधार पर उनकी बात रखता हिंदीजंक्शन का यह ‘साक्षात्कार पन्ना’.

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प्रियंका ओम और वो अजीब लड़की

हिंदी जंक्शन : पाठकों के लिए आपकी पारिवारिक, शैक्षणिक तथा व्यवसायिक पृष्ठभूमि पर कुछ प्रकाश डालना चाहेंगी ? मसलन आप कहाँ पली-बढीं, आपकी शिक्षा और फिलवक्त आप क्या कर रहीं हैं ?

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प्रियंका ओम : मेरा जन्म झारखण्ड राज्य के जमशेपदुर शहर में हुआ जहाँ मेरे पापा सरकारी कर्मचारी थें. मेरी बारहवीं तक की पढाई भी वहीँ से हुई. अपने पैतृक शहर भागलपुर से मैंने इंग्लिश लिटरेचर में स्नातक करने के साथ-साथ दैनिक जागरण अख़बार में भी बतौर मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव का काम किया. स्नातक के पश्चात् दिल्ली के कई व्यावसायिक संस्थानों के काम करने के अनुभव के साथ दूर शिक्षा की सुविधा से सेल्स और मार्केटिंग में स्नातकोत्तर भी कर लिया.
2008 से विवाहोपरांत मैं ज्यादातर अफ्रीका में ही रह रही हूँ जहाँ मुझे काम करने का मौका तो मिला लेकिन मैंने किया नहीं. काम और पैसे से ज्यादा एहमियत मैंने अपने घर और परिवार को दिया. फिलहाल दारसिटी तंज़ानिया अफ्रीका में रह रही हूँ.

हिंदी जंक्शन : साहित्य की तरफ रुझान कैसे हुआ ?

प्रियंका ओम : बचपन से ही देखती थी कि घर में हर महीने पाँच मासिक पत्रिकाएँ आती थी. माँ के लिए मनोरमा, गृहशोभा, सरिता और पापा के लिए इंडिया टुडे और माया. इसके अलावा माँ पुस्तकालय से उपन्यास भी मंगवाकर पढ़ती थी. पढ़ने का शौक माँ को नाना जी से मिला था जो बी.एच.यू से थे और पापा को दादा जी से जो अपने ज़माने के ‘इंग्लिश से मास्टर’ थें जो उस जमाने में बड़ी बात थी.[su_pullquote]सिगरेट होठों से लगाने से पहले वो अपने होठों पर वेसिलीन की एक परत लगाती. उसके होंठ अब भी गुलाबी थे. सिर्फ खून जलता था होंठ नहीं. (इसी पुस्तक से)[/su_pullquote]

हमारे समय जिस उम्र में बच्चे चम्पक और नंदन पढ़ते थें उस उम्र में मैं कादम्बिनी पढ़ने लगी थी. हालांकि पापा इस बात से नाराज़ भी रहते थे लेकिन साहित्य की आदत भी नशे जैसी होती हैं. और अचानक ही बोन कैंसर से माँ की मौत के बाद हिंदी साहित्य से संपर्क लगभग टूट गया और माहौल के अनुसार मन अंग्रेजी से बंधने लगा था. रोजी-रोटी के चक्रव्यूह में उलझने के बाद तो साहित्य से बिलकुल ही नाता टूट गया था लेकिन पुनः शादी के बाद खाली वक़्त में साहित्य प्रेम जागृत हुआ और आज वो अजीब लड़की आप सबके हाथ में है.

हिंदी जंक्शन : इसे समाजिक विरोधाभास कहें, रुढ़िवादी सोच या कुंठा; परन्तु कोई महिला अगर बोल्ड विषय पर कलम चलाती है तो एक ख़ास तबके की भौंहे तन जाती है. क्या आपका कुछ ऐसा सामना हुआ ?

प्रियंका ओम : देखिये जब भी कोई स्त्री आगे बढ़ने का प्रयास करती है तो सबसे पहले रुकावट परिवार वाले ही डालते हैं. लेकिन इस मामले मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे रोकने की बजाय आगे बढ़ने के लिए धक्का दिया गया. आज आपके सामने यह किताब है तो सिर्फ और सिर्फ मेरे पति ओम प्रकाश जी की वजह से. उन्होंने न सिर्फ मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया बल्कि मेरी कहानियों के सबसे पहले पाठक भी बने.[su_pullquote align=”right”]दूर से कांच के गिलास में चाय उसे गर्म खून और जलती हुई सिगरेट चिता की लकड़ियाँ लग रही थीं (इसी पुस्तक से)[/su_pullquote]

इस संग्रह में कुल चौदह कहानियाँ है और परम्परागत तरीके से किसी एक कहानी के शीर्षक को उठा कर किताब का नाम दिया गया है. सभी कहानियाँ एक दूसरे से अलग है जहाँ ज्यादातर कहानी सामाजिक है जिनमें कुछ कहानियाँ कुछ घंटों के अंतरद्वंद्व को प्रस्तुत करती हैं, तो अन्य जिंदगी की मुकम्मल दास्तान है. सभी कहानियों के केंद्र में स्त्री है जो समाज के कई विद्रूपताओं से परिचय करवाती है. जहां कुछ कहानियाँ शोषण, बाज़ारवाद, लालच, स्वार्थ, असुरक्षा की भावना और मानवीय कमजोरी को प्रकट करती हैं, वही कुछ कहानियाँ प्रेम, क्षमा, समर्पण और दोस्ती की नयी मिसालें गढ़ती हुई हमारे सामने से गुजरती हैं. इन कहानियों में समाज के कुछ कड़वे सच हैं, तो जिंदगी की फंतासियां भी और जादुई यथार्थ भी. रिश्तों की नाज़ुक डोर है, तो स्वार्थ की गांठ भी. हाँ, समाज की सच्चाई को उकेरते हुए कुछ कहानियाँ बोल्ड की कैटेगरी में आ गई है. जब लिखना शुरू किया तो सबसे पहले ‘इमोशन’ लिखी जो इस संग्रह की सबसे बोल्ड कहानी है. यह वास्तव में एक स्वान्त: सुखाय बनी कॉलगर्ल की कथा है तो जाहिर सी बात है कि रामकथा नहीं होगी. लेकिन एक दो कहानी के आधार पर पूरी संग्रह को बोल्ड कह देना मुझे उचित नहीं लगता. हाँ, बेबाकी से लिखा गया संकलन अवश्य कह सकते हैं. क्योंकि मैंने जिस भी विषय पर लिखा उसमे छुपा हुआ कुछ नहीं बचा और न ही कुछ और लिखने की सम्भावना बची रही.

सभी कहानियाँ लगभग एक ही सिटींग में लिखी गई है. मुझे कुछ गढ़ना नहीं पड़ा कलम अपने आप चलती गई.

हिंदी जंक्शन : आपने विदेश में रहते हुए भी अपनी किताब भारत से छपवाई. क्या कुछ मुश्किलें आयी और किन-किन लोगों का साथ मिला ?

प्रियंका ओम : विदेश में रहकर भारत में किताब छपवाने का एक मात्र उद्देश्य किताब को ज्यादा से ज्यादा पाठक तक पहुँचाना था.

विदेशो में रहने वाले भारतीयों की स्थिती भी बहुत अलग होती है. न तो वो पूरी तरह से विदेशी बन पाते है न ही पूरी तरह से भारतीय. ऐसे में विदेशी भारतीय में हिंदी के पाठक ढूंढना दिन में तारे ढूँढने जैसा था.

दो साल पहले जब मैंने कहानी लिखना शुरू किया तब किताब की कल्पना भी नहीं की थी. हाँ, कुछ दोस्तों को व्यक्तिगत मेल द्वारा कहानियाँ जरूर भेजी जिन्होंने प्रतिक्रिया के रूप में कहानियो का संकलन लाने की सलाह दी.[su_pullquote]मेरे अधूरे उपन्यास के पन्नों की तरह बिखरी हुई है तुम्हारी यादें (इसी पुस्तक से)[/su_pullquote]

मुझे ये कहते हुए गर्व हो रहा है की मेरी कहानियो को किसी ने खारिज नहीं किया. हाँ, एकाध प्रकाशक मित्र ने अवश्य एक-दो साल बाद छपवाने की सलाह दी. और तब शुरू हुआ एक ऐसे प्रकाशक की तलाश जिसका स्वार्थ प्रसिद्द व्यक्ति की बकवास छाप कर प्रसिद्धि पाने में नहीं अपितु एक आम इंसान का कुछ खास छाप कर उसे प्रसिद्धि दिलाने में दिलचस्पी हो. अंजुमन प्रकाशन के कर्ता-धर्ता वीनस केसरी जी से मिलकर ये तलाश खत्म हो गई थी. यहाँ तक की किताब का नाम ‘वो अजीब लड़की’ भी वीनस जी का ही दिया हुआ है. मुझे लगता है मेरी किताब का इससे बेहतर कोई नाम हो ही नहीं सकता था.

हिंदी जंक्शन : ‘वो अजीब लड़की’ की कहानियों में कोई ऐसी कहानी जिसका किरदार खुद लेखिका या उसके इर्द-गिर्द का कोई हो ? कुल मिलाकर कहानियों के लिए प्रेरणा आपको कहाँ-कहाँ से मिली ?

प्रियंका ओम : आसपास के किस्सों से ही कहानी बनती है. जब भी इन किस्सों से कोई कहानी बुनती हूँ तो उसके किरदार को आत्मसात कर लेती हूँ और इस तरह मेरे किरदार में मैं समाहित हो जाती हूँ.

संग्रह से ‘मौत की ओर’ कहानी मैंने मेरी माँ की मौत को याद करते हुए लिखा है. यही वो कहानी है जिसे लिखने में मुझे सबसे ज्यादा वक़्त लगा. क्योंकि दर्द को लिखना दर्द सहने जैसा ही होता है.

दूसरे शीर्षक की कहानी ‘वो अजीब लड़की’ और ‘सॉरी’ की नायिका को मैं अपने सबसे करीब पाती हूँ. उनकी हाज़िरजवाबी, दलिलवाजी और शब्दों का ताना बाना मैं ही तो हूँ !

मैं बहुत कल्पनाशील हूँ . कल्पनाओं की एक अलग ही दुनियां है मेरी और यही कल्पनायें प्रेरणा देती है लिखने के लिए.

हिंदी जंक्शन : यह तो माता से उसके सबसे प्रिय संतान पूछने जैसे होगा. परन्तु ‘वो अजीब लड़की’ में से आपकी सबसे पसंदीदा कहानी ? और क्यों ?

प्रियंका ओम : सचमुच बहुत कठिन सवाल है . यूँ तो मुझे अपनी सभी कहानियाँ बहुत प्रिय है. जैसा अपने कहा मेरी 14 कहानियाँ 14 बच्चों की तरह है लेकिन सबसे पसंदीदा कहानी ‘यादो की डायरी’ और ‘खुदगर्ज़ प्यार’ हैं . ये दोनों कहानियाँ प्रेम प्रधान है और प्रेम ही जीवन का आधार है.

मैं हमेशा से समझती थी कि ‘सौतेलापन’ और ‘मौत की ओर’ मेरी सबसे कमज़ोर कहानी है परन्तु ये दोनों कहानी पाठकों द्वारा सबसे ज्यादा सराही गई है.

हिंदी जंक्शन : लेखन के क्षेत्र में यह आपका पहला कदम है (पुस्तक के तौर पर). किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली ?

प्रियंका ओम : मुझे अपनी कहानियो पर पूरा भरोसा था. मैं जानती थी सबको पसंद आएगी. एक तो कहानियाँ बहुत छोटी-छोटी है और दूसरे आम बोल चाल की भाषा में लिखी गई है. तीसरे इस संकलन में हर तरह की कहानी है. जिसके कारण हर तरह और हर तबके के लोग पढ़ और सराह रहे हैं. हाँ ये भी सच है इतनी अच्छी प्रतिक्रिया और पाठको से इतना प्यार मिलेगा ये नहीं सोचा था.

किताब आते ही मेरे शहर के दोनों मुख्य समाचार पत्र दैनिक भास्कर और प्रभात खबर ने संग्रह की चर्चा की. राजनीतिक अड्डा ने ऑनलाइन साक्षात्कार लेकर छापा. किताब आने के दो महीने बाद प्रभात खबर बिहार झारखण्ड और बंगाल एडिशन में न सिर्फ ‘वो अजीब लड़की’ के बारे में विस्तार से लिखा गया बल्कि मेरी निजी ज़िन्दगी से भी पाठको को अवगत कराया. इसकी चर्चा केवल सच मासिक पत्रिका में भी हुई थी. दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक नई दिशा में भी आया था.

हिंदी जंक्शन : हिंदी लेखन ही क्यों चुना आपने ? या खुद हिंदी भाषा के साहित्यिक भविष्य को लेकर आपके विचार या टिप्पणी ?

प्रियंका ओम : चार साल पहले मैंने अंग्रेजी भाषा में कुछ कहानियाँ लिखी थी और उसमे से एक प्रतिष्ठित लेखक सत्य प्रकाश असीम जी को भेजी. उन्होंने पढ़ने के उसे हिंदी में लिखने कहा. असल में हिंदी लेखन की शुरुआत वहीं से हुई.

अपने ही देश में हिंदी के साथ सौतेलापन निंदनीय है. बड़े शहरों के स्कूल में तो हिंदी या तो खानापूर्ति या लगभग ना के बराबर पढाई जाती है. अंग्रेजी किताब पढ़ना फैशन हो गया है. पाठक अंग्रेजी की किताब तो खरीद कर पढ़ते है लेकिन हिंदी की किताब मांग कर फ्री में पढ़ते है. लेकिन जिस तरह से हिंदी में हिंदी लिखने वालो की संख्या बढ़ रही है उसे देख कर ऐसा लगता है कि आने वाले कुछ एक सालो में हिंदी अपने देश में मज़बूती से खड़ी हो पाएगी और पाठक हिंदी साहित्य की किताबे भी खरीद कर ही पढ़ेंगे.

हिंदी जंक्शन : नारीवाद का आपके लेखन और विचारधारा पर कितना और क्या प्रभाव रहा है ?

प्रियंका ओम : ज़िन्दगी में किसी भी चीज़ को देखने और समझने का दो नजरिया होता है – एक पुरुष का एक स्त्री का. स्त्री होने के नाते मेरे नज़रिये में भी स्त्री बोध है किन्तु मैं महिला सशक्तिकरण के नाम पर हर छोटी-मोटी बात पर महिलाओं के खड़े हो जाने के खिलाफ हूँ क्योंकि नारी तो स्वयं शक्ति स्वरूपा है.

हाँ व्यवस्था में बदलाव की जरुरत है लेकिन मात्र शाब्दिक प्रहार से महिलाओं कि स्थिति सदृढ़ नहीं होगी क्योंकि महिलाओं को लेकर कहीं न कहीं आज भी लोगों का और स्वयं महिलाओं का भी वही नजरिया है जो सदियों पहले था. जब तक लोगों की पुरानी सोच नहीं बदलेगी तब तक महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य पूरा नहीं होगा और सोच बदलने के लिए महिलाओं को शुरुआत घर से करनी होगी. क्योंकि घर से बड़ा कोई स्कूल/कॉलेज नहीं. सबसे पहले घर में बेटी की तुलना में बेटे को ज्यादा महत्व देना बंद करना होगा. बेटों को भी खाने के बाद जूठा बर्तन उठाना ही नहीं अपना काम स्वयं करना सिखाना होगा. सबसे बाद में खाने की आदत छोड़नी होगी. महिला को स्वयं को उपेक्षित और कमज़ोर समझना बंद करना होगा. हिंदी फिल्मो में महिलाओं पर फिल्माया गया आइटम सांग का विरोध करना होगा या उन्हें भोग की वस्तु दिखाने पर भी आपत्ति जाताना होगा.

हिंदी जंक्शन : सोशल मीडिया (ख़ासकर फेसबुक) से आपको अच्छी मदद मिली है. इसके न होने की कल्पना से आपको कैसा लगता है ?

प्रियंका ओम : हो सकता है अन्य लोगों के लिए फेसबुक मात्र मनोरंजन का साधन हो लेकिन मेरे लिए मेरा कार्यस्थल है. विचारो में विरोध होने के बाबजूद यही एक जगह है जहाँ एक ही वक़्त में सभी एक साथ मिलते है. इसलिए मेरी नज़र में प्रचार-प्रसार के लिए सोशल मीडिया से बेहतर कोई प्लेटफार्म नहीं. अगर फेसबुक नहीं होता तो शायद मैं बतौर लेखिका स्थापित नहीं हो पाती.

हिंदी जंक्शन : दूसरी किताब आने का कोई संभावित समय ? क्या यह भी ‘वो अजीब लड़की’ के तर्ज पर ही होगा या कुछ अलग विषय पर लिखना चाहेंगी ?

प्रियंका ओम : वैसे तो मेरे जेहन में कई किस्से है जिन्हें मैं कहानी का रूप देना चाहती हूँ लेकिन अभी दूसरी किताब के बारे में अभी कुछ सोचा नहीं है. सच तो ये है कि अभी तक ‘वो अजीब लड़की’ सभी पाठको तक नहीं पहुँच पाई है तो ऐसे में दूसरी किताब लाने के बारे में मैं नहीं सोच पा रही हूँ.

दूसरी किताब किस तर्ज़ पर होगी यह कहना मुश्किल है क्योंकि मैं सोच कर नहीं लिखती. हाँ ये जरूर कह सकती हूँ कि दूसरी किताब भी कहानी संग्रह ही होगी. मैं जल्दी-जल्दी भागने में विश्वास नहीं करती इसलिए शुरुआत छोटी रचनाओं से की थी और भविष्य में अपन्यास लिखने की योजना है. या यूँ कहे उपन्यास लिखना एक सपना है जो अंदर पल-बढ़ रहा है.

हिंदी जंक्शन : कोई ऐसी बात जो उपरोक्त प्रश्नावली में नहीं है परन्तु आप पाठकों के समक्ष रखना चाहेंगी ?

प्रियंका ओम : हाँ एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगी. जब भी कोई महिला घर से निकल कर आगे बढ़ने की कोशिस करती है बाहरी पुरुष उसे सिर्फ मनोरंजन का साधन समझते है. मैं महिला लेखक से कहना चाहूंगी की अगर उनकी लेखनी प्रभावी है और उन्हें अपनी लेखनी पर विश्वास है तो उन्हें किसी पुरुष को खुश करने की जरुरत नहीं है. कुछ अच्छा लिखा जुगनू की तरह होता है अँधेरे में भी चमक उठता है.


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नोट : प्रस्तुत उत्तर लेखिका के अपने विचार हैं.

Topics Covered : Wo Ajeeb Ladki by Priyanka Om, Hindi Books & Authors

Tags: Anjuman PrakashanInterviewPriyanka Om
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Comments 1

  1. om sapra says:
    2 years ago

    achhi jaankari- priyanka om ji ki kuchh kahaniya mene padi- sashakt aur sampreshan mein safal kahi jaayengi- badhai-om sapra, new delhi– mob– 9818180932

    Reply

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