लप्रेक (Laprek) क्या होता है, इसकी बात मैं इस पोस्ट में पहले ही कर चूका हूँ। किस्सागोई के इस नैनो संस्करण को बाज़ार तथा पाठकों ने हाथों-हाथ लिया जिससे मान सकता हूँ कि साल की शुरुआत अच्छी रही (हिंदी के सन्दर्भ में)। लघु कथा तो छपते रहे हैं, परन्तु रवीश द्वारा ‘इश्क़ में शहर होना’ हिंदी में अपनी तरह की पहली किताब है जो खुद में एक नवीन प्रयोग रहा और सफ़ल भी। बाज़ार की दृष्टि से भी देखें तो लोकार्पण के बाद ही हज़ारों कॉपियां निकल जाना हिंदी परिदृश्य में एक उपलब्धि है। हालाँकि यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि हिंदी में प्रमोशन, प्रीबूकिंग और बेस्टसेलर जैसे शब्दों के गढ़ने-जुड़ने से हिंदी प्रकाशन भी दरिद्रता के दलदल से बाहर आए (इसे बाज़ारवाद से जोड़कर न देखें), फिर भी, संकेत तो अच्छे हैं।

तो कैसी किताब है ‘इश्क़ में शहर होना’?
पुस्तक के आमुख से ही शुरू करें तो बोध हो जाता है कि आगे कुछ अच्छा पढने को मिलने वाला है। रवीश ने जो इसमें लिखा है वह शहर में पैर जमा रहे (या कई अड़चनों के बीच जमा चुके) उस युवा के शब्द है जिसके साथ उसकी प्रेमिका या प्रेम की अनुभूति है। यहाँ कहानियां अलग-अलग चरणों और परिदृश्य में है। खाप्प से लेकर खामियाज़ा, दिल्ली के भागम-भाग से लेकर भावनात्मक भित्तिचित्र इत्यादि – सबकुछ है नब्बे पन्नों के इस ‘मिनी पैकेज’ में। काबिल-ए-गौर बात यह भी है कि इस किताब में रूमानी और परेशानी एक ही स्याही से छपी है (शहरी प्रेमी को यह आपबीती लगे !)।
‘इश्क़ में शहर होना’ ज़िन्दगी नहीं, अलग-अलग परिप्रेक्ष्य के किसी खास पल या घटना की कहानी बताता है जिसे ताने बाने में पिरोकर फिर से एक पूरी जिंदगी की झलक मिलती है।
जिन पाठकों को किताब बीच में खोलकर पढने कि आदत है वह ऐसा बिना निराश हुए कर सकते हैं। कोई भी पन्ना खोलकर शुरू हो जाए, चंद शब्दावली वाली कहानी आपको अतीत, वर्तमान या भविष्य दिखा ही देगी। हाँ, कहीं किसी जगह मुझे वह लघु-कथा कम अभिव्यक्ति ज्यादा लगी। अस्सी से ज्यादा इन कहानियों में भी अगर आप खुद को या परिचित किरदार नहीं ढूँढ पाते तो नौकरी, प्रेम या ज़िन्दगी – तीनों में से किसी एक को बदल डालिए !
‘इश्क़ में शहर होना’ ज़िन्दगी नहीं, अलग-अलग परिप्रेक्ष्य के किसी खास पल या घटना की कहानी बताता है जिसे ताने बाने में पिरोकर फिर से एक पूरी जिंदगी की झलक मिलती है। बहुत छोटी कहानियों के साथ रवीश पढ़वाते कम परन्तु सोचवाते ज्यादा हैं – ऐसे अटकलें मुझे पसंद है। कुल मिलाकर समय उतना ही लगता है जितना सौ पन्नों की अन्य किताब पर। कहानियां बेशक छोटी हैं, अनुभूति नहीं। चार लाइन पढ़कर दस लाइन तक सोचिये – कहानियां कुछ ऐसी है.
पुस्तक की दूसरी बड़ी खूबी है विक्रम नायक की बनायीं गयी तसवीरें। उन्हें देखते हुए पढ़े या पढ़कर देखें, रवीश के शब्द और दिए गए रेखाचित्र एक दुसरे अनुपूरक लगते हैं। चित्र आधी या पूरी कहानी एक साथ बयाँ कर देते हैं। मैंने इसे ‘टीज़र’ और बोनस की तरह लिया !
‘हिंदी और युवा’ एक वाक्य में आज तक सही से प्रयोग नहीं हुए – रवीश ने वो कर दिया
क्या में इसकी अनुशंसा करूंगा ?
हाँ ! करूँगा !
हिंदी और युवा, ये दोनों शब्द अब तक परस्परविरोधी शब्द ज्ञात होते थे जिनका एक साथ एक वाक्य में प्रयोग सकारात्मक पहलु को लेकर पहले कभी नहीं हुआ। रवीश ने आज उनके हाथ में भी किताब थमा दी जो अंग्रेजी शब्दावली को एलिट की सीढियां मानते हैं। ‘इश्क़ में शहर होना’ मुझे अच्छा लगा। मुझे किताब के साथ-साथ यह नवीन प्रयोग भी बहुत अच्छा लगा और इसका स्वागत करता हूँ। आशा है इस श्रृंखला की आगामी पुस्तकें भी उतनी ही पठनीय हो।
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Topics Covered : Laprek, Ishq Mein Shaher Hona Review, Ravish Kumar Book